Tuesday, January 1, 2008

Poem - कुछ नयी सी लगती है

कुछ नयी सी लगती है

उन घनी झाड़ियों के पीछे ,
एक दरख़्त कुछ नयी सी लगती है

हर दिन यहाँ स्याह सी,
और रातें उजली सी लगती है,

सूखे पत्तों की तरह बिखरती,
ये ज़िन्दगी कुछ नयी सी लगती है

उन
घनी झाड़ियों के पीछे ,
एक दरख़्त कुछ नयी सी लगती है


रेखाओं के हैं पार बने,
भाई - भाई के छोटे घर,
जहां सिमटी है सोच मुट्ठी में,

ये दुनिया कुछ नयी सी लगती है
उन घनी झाड़ियों के पीछे ,
एक दरख़्त कुछ नयी सी लगती है

क्षितिज़ को छुने की चाह दिल में,
और कल्पना की उँची उड़ानें,
चाहतों के भंवर में घूमती,
ये आँखें कुछ नयी सी लगती हैं
उन घनी झाड़ियों के पीछे ,
एक दरख़्त कुछ नयी सी लगती है

दिखावे की शिद्दतों और,
चाँदी के उल्फ़त से सजी,
शमा सी लरज़ती हुई,
ये मुहब्बत कुछ नयी सी लगती है
उन घनी झाड़ियों के पीछे ,
एक दरख़्त कुछ नयी सी लगती है

- राज

5 comments:

Sajal said...

by any chance...........taking poem tutions from Gulzar????

style bohot kuch waisa hai!!!

wiase jhkkass hai!!!

Piyush Raj Sinha said...

Bhai, why are u pulling my legs, But Dude,

Thanx,

Comment Achcha Laga Yaar!!

Anonymous said...
This comment has been removed by a blog administrator.
RAJESH said...

ITS GREAT TO FIND A SENSITIVE HEART IN A COMPUTER EXPERT.IT SEEMS THAT BEHIND THE CHUBBY FACE AND FLASHING SMILES RESIDES A SENSITIVE "KAVI".KEEP IT UP

Eva said...

mitr...poems band kyon ho gaye??