Friday, October 11, 2013

सपने – एक मृगतृष्णा के

कभी कभी ये जानते हुए कि क्या सही है और क्या गलत, हमलोग गलत की ही चाहत रखते हैं । मन कुछ कहता है और दिल कुछ और ....... इस उधेढ़बुन में ज़िन्दगी सिसक के रह जाती है। मन अपनी आंखो से सब कुछ देखता है पर दिल तो कुछ समझना ही नही चाहता है। उसे बस एक मृगतृष्णा की तलाश रहती है। सच में ये एक मृगतृष्णा ही तो है। कल को जब दिन ढलेगा तो हम फिर खाली हाथ रह जायेंगे । पर फिर भी आज वो ही अच्छा लगता है । 

भगवान भी थोड़े अजीब हैं । वो ऐसी परिस्थितियाँ परोक्ष रखते हैं कि हमलोग भी दिग्भ्रमित हो जाते हैं । पर मैं जब खुद को समझ नही पाया तो उनकी बातों को क्या समझ सकुंगा ।  आज अच्छा लगता है, अभी अच्छा लगता है.......कुछ नज़दिकियाँ अच्छी लगती है तो कभी कभी दुरियाँ भी अच्छी लगतीं हैं । सच में थोड़ी दुरी अच्छी लगती है, एक झूठ दिल को तसल्ली देता है । कभी कभी लगता है कि बैकड्रॉप में किसी फिल्म का गाना बज रहा है - 

“ ज़िन्दगी इस तरह से लगने लगी, रंग उड़ जाये जो दिवारों से       
अब छुपाने को अपना कुछ ना रहा, ज़ख्म दिखने लगे है दरारों से......”

पुरूष एक ऐसी झुठी मानसिकता का चादर ओढ के रहता है कि वो अपनी मजबुरियाँ किसी के साथ साझा भी नही कर सकता । दीये की रौशनी कभी कभी बहुत खुबसुरत काम करती है, वो हमें बस वो दिखाती है जिसे हम दिल से देखना चाहते हैं और फिर वही दिल ये कहता है की आस-पास कोई और है ही नही । जब भी दिल मुस्कुराने कि कोशिश करता है, मन उसे टोक देता है, कहता है कि आँखे खोलो, जिसे तूम अपना समझते हो, वो एक सपना मात्र है । फिर खुशी ना जाने कहाँ चली जाती है । रह जाता है तो बस एक सन्नाटा । बैक ग्राँउड का गाना फिर बदल जाता है - 

“दिल कहता है, चल उनसे मिल, उठते है कदम रूक जाते हैं
दिल हमको कभी समझाता है, हम दिल को कभी समझाते है .....”

किसी से कुछ कह भी नही सकता, तो सोचा अपने अंतर्मन की व्यथा किसी कोरे कागज़ पर उतार दूँ, शायद ये समझ सके मेरे अन्दर के अंतर्द्वन्द को । 

एक खालीपन है, मन में जीवन में।